फ़ारिग़ मुझे न जान कि मानिंद-ए-सुब्ह-ओ-मेहर

फ़ारिग़ मुझे न जान कि मानिंद-ए-सुब्ह-ओ-मेहर | मिर्ज़ा ग़ालिब

 

फ़ारिग़ मुझे न जान कि मानिंद-ए-सुब्ह-ओ-मेहर

है दाग़-ए-इश्क़ ज़ीनत-ए-जेब-ए-कफ़न हुनूज़

 

है नाज़-ए-मुफ़्लिसाँ ज़र-ए-अज़-दस्त-रफ़्ता पर

हूँ गुल-फ़रोश-ए-शोख़ी-ए-दाग़-ए-कोहन हुनूज़

 

मै-ख़ाना-ए-जिगर में यहाँ ख़ाक भी नहीं

ख़म्याज़ा खींचे है बुत-ए-बे-दाद-फ़न हुनूज़

 

जूँ जादा सर-ब-कू-ए-तमन्ना-ए-बे-दिली

ज़ंजीर-ए-पा है रिश्ता-ए-हुब्बुल-वतन हुनूज़

 

फ़ारिग़ मुझे न जान कि मानिंद-ए-सुब्ह-ओ-मेहर | मिर्ज़ा ग़ालिब

By Real Shayari

Real Shayari Ek Koshish hai Duniya ke tamaan shayar ko ek jagah laane ki.

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