रौंदी हुई है कौकबा-ए-शहरयार की

रौंदी हुई है कौकबा-ए-शहरयार की | मिर्ज़ा ग़ालिब

रौंदी हुई है कौकबा-ए-शहरयार की

इतराए क्यूँ ख़ाक सर-ए-रहगुज़ार की

जब उस के देखने के लिए आएँ बादशाह

लोगों में क्यूँ नुमूद हो लाला-ज़ार की

भूके नहीं हैं सैर-ए-गुलिस्ताँ के हम वले

क्यूँकर खाइए कि हवा है बहार की

रौंदी हुई है कौकबा-ए-शहरयार की | मिर्ज़ा ग़ालिब

By Real Shayari

Real Shayari Ek Koshish hai Duniya ke tamaan shayar ko ek jagah laane ki.

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