आईना क्यूँ न दूँ कि तमाशा कहें जिसे

आईना क्यूँ न दूँ कि तमाशा कहें जिसे | मिर्ज़ा ग़ालिब

आईना क्यूँ न दूँ कि तमाशा कहें जिसे

ऐसा कहाँ से लाऊँ कि तुझ सा कहें जिसे

 

हसरत ने ला रखा तिरी बज़्म-ए-ख़याल में

गुल-दस्ता-ए-निगाह सुवैदा कहें जिसे

 

फूँका है किस ने गोश-ए-मोहब्बत में ऐ ख़ुदा

अफ़्सून-ए-इंतिज़ार तमन्ना कहें जिसे

 

सर पर हुजूम-ए-दर्द-ए-ग़रीबी से डालिए

वो एक मुश्त-ए-ख़ाक कि सहरा कहें जिसे

 

है चश्म-ए-तर में हसरत-ए-दीदार से निहाँ

शौक़-ए-इनाँ गुसेख़्ता दरिया कहें जिसे

 

दरकार है शगुफ़्तन-ए-गुल-हा-ए-ऐश को

सुब्ह-ए-बहार पुम्बा-ए-मीना कहें जिसे

 

‘ग़ालिब’ बुरा न मान जो वाइ’ज़ बुरा कहे

ऐसा भी कोई है कि सब अच्छा कहें जिसे

 

या रब हमें तो ख़्वाब में भी मत दिखाइयो

ये महशर-ए-ख़याल कि दुनिया कहें जिसे

 

है इंतिज़ार से शरर आबाद रुस्तख़ेज़

मिज़्गान-ए-कोह-कन रग-ए-ख़ारा कहें जिसे

 

किस फ़ुर्सत-ए-विसाल पे है गुल को अंदलीब

ज़ख़्म-ए-फ़िराक़ ख़ंदा-ए-बे-जा कहें जिसे

आईना क्यूँ न दूँ कि तमाशा कहें जिसे | मिर्ज़ा ग़ालिब

By Real Shayari

Real Shayari Ek Koshish hai Duniya ke tamaan shayar ko ek jagah laane ki.

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