गर्म-ए-फ़ुग़ाँ   है   जरस    उठ कि   गया     क़ाफ़िला

वाए  वो  रह-रौ  कि  है मुंतज़़िर-ए-राहिला

तेरी  तबीअत  है  और  तेरा ज़माना  है  और

तेरे   मुआफ़िक़   नहीं ख़ानक़ही   सिलसिला

दिल  हो  ग़ुलाम-ए-ख़िरद या  कि  इमाम-ए-ख़िरद

सालिक-ए-रह  होशियार सख़्त   है   ये   मरहला

उस  की   ख़ुदी   है   अभी शाम-ओ-सहर   में  असीर

गर्दिश-ए-दौराँ   का  है   जिस   की    ज़बाँ   पर   गिला

तेरे   नफ़स   से   हुई   आतिश-ए-गुल   तेज़-तर

मुर्ग़-ए-चमन   है   यही   तेरी नवा    का   सिला

गर्म-ए-फ़ुग़ाँ   है   जरस    उठ कि   गया     क़ाफ़िला

वाए  वो  रह-रौ  कि  है मुंतज़़िर-ए-राहिला

 

By Real Shayari

Real Shayari Ek Koshish hai Duniya ke tamaan shayar ko ek jagah laane ki.

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