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सीमाब-पुश्त गर्मी-ए-आईना दे है हम | Mirza Ghalib

by Real Shayari   ·  5 days ago   ·  

सीमाब-पुश्त गर्मी-ए-आईना दे है हम | Mirza Ghalib सीमाब-पुश्त गर्मी-ए-आईना दे है हम हैराँ किए हुए हैं दिल-ए-बे-क़रार के आग़ोश-ए-गुल कुशूदा बरा-ए-विदा है ऐ अंदलीब चल कि चले दिन बहार के यूँ बाद-ए-ज़ब्त-ए-अश्क फिरूँ गिर्द यार के पानी पिए किसू पे कोई जैसे वार के बाद-अज़-विदा-ए-यार ब-ख़ूँ दर तपीदा हैं नक़्श-ए-क़दम हैं हम कफ़-ए-पा-ए-निगार के हम मश्क़-ए-फ़िक्र-ए-वस्ल-ओ-ग़म-ए-हिज्र से 'असद' लाएक़ ...

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सफ़ा-ए-हैरत-ए-आईना है सामान-ए-ज़ंग आख़िर | Mirza Ghalib

by Real Shayari   ·  5 days ago   ·  

सफ़ा-ए-हैरत-ए-आईना है सामान-ए-ज़ंग आख़िर | Mirza Ghalib सफ़ा-ए-हैरत-ए-आईना है सामान-ए-ज़ंग आख़िर तग़य्युर आब-ए-बर-जा-मांदा का पाता है रंग आख़िर न की सामान-ए-ऐश-ओ-जाह ने तदबीर वहशत की हुआ जाम-ए-ज़मुर्रद भी मुझे दाग़-ए-पलंग आख़िर ख़त-ए-नौ-ख़ेज़ नील-ए-चश्म ज़ख़्म-ए-साफ़ी-ए-आरिज़ लिया आईना ने हिर्ज़-ए-पर-ए-तूती ब-चंग आख़िर हिलाल-आसा तही रह गर कुशादन-हा-ए-दिल चाहे हुआ मह कसरत-ए-सरमाया-अंदाेज़ी से तंग आख़ि तड़प कर मर गया वो सैद-ए-बाल-अफ़्शाँ कि मुज़्तर ...

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रौंदी हुई है कौकबा-ए-शहरयार की | मिर्ज़ा ग़ालिब

by Real Shayari   ·  2 weeks ago   ·  

रौंदी हुई है कौकबा-ए-शहरयार की | मिर्ज़ा ग़ालिब रौंदी हुई है कौकबा-ए-शहरयार की इतराए क्यूँ न ख़ाक सर-ए-रहगुज़ार की जब उस के देखने के लिए आएँ बादशाह लोगों में क्यूँ नुमूद न हो लाला-ज़ार की भूके नहीं हैं सैर-ए-गुलिस्ताँ के हम वले क्यूँकर न खाइए कि हवा है बहार की रौंदी हुई है कौकबा-ए-शहरयार की | मिर्ज़ा ग़ालिब

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काबे में जा रहा तो न दो ता’ना क्या कहें | मिर्ज़ा ग़ालिब

by Real Shayari   ·  2 weeks ago   ·  

काबे में जा रहा तो न दो ता'ना क्या कहें | मिर्ज़ा ग़ालिब काबे में जा रहा तो न दो ता'ना क्या कहें भूला हूँ हक़्क़-ए-सोहबत-ए-अहल-ए-कुनिश्त को ताअ'त में ता रहे न मय-ओ-अंगबीं की लाग दोज़ख़ में डाल दो कोई ले कर बहिश्त को हूँ मुन्हरिफ़ न क्यूँ रह-ओ-रस्म-ए-सवाब से टेढ़ा लगा है क़त क़लम-ए-सरनविश्त को 'ग़ालिब' कुछ अपनी ...

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फिर इस अंदाज़ से बहार आई | मिर्ज़ा ग़ालिब

by Real Shayari   ·  2 weeks ago   ·  

फिर इस अंदाज़ से बहार आई | मिर्ज़ा ग़ालिब फिर इस अंदाज़ से बहार आई कि हुए मेहर-ओ-मह तमाशाई देखो ऐ साकिनान-ए-ख़ित्ता-ए-ख़ाक इस को कहते हैं आलम-आराई कि ज़मीं हो गई है सर-ता-सर रू-कश-ए-सतह-ए-चर्ख़-ए-मीनाई सब्ज़ा को जब कहीं जगह न मिली बन गया रू-ए-आब पर काई सब्ज़ा ओ गुल के देखने के लिए चश्म-ए-नर्गिस को दी है बीनाई है हवा में ...