धोता हूँ जब मैं पीने को उस सीम-तन के पाँव | मिर्ज़ा ग़ालिब

धोता हूँ जब मैं पीने को उस सीम-तन के पाँव | मिर्ज़ा ग़ालिब धोता हूँ जब मैं पीने को उस सीम-तन के पाँव रखता है ज़िद से खींच के बाहर…

याद है शादी में भी हंगामा-ए-या-रब मुझे | मिर्ज़ा ग़ालिब

याद है शादी में भी हंगामा-ए-या-रब मुझे | मिर्ज़ा ग़ालिब   याद है शादी में भी हंगामा-ए-या-रब मुझे सुब्हा-ए-ज़ाहिद हुआ है ख़ंदा ज़ेर-ए-लब मुझे   है कुशाद-ए-ख़ातिर-ए-वा-बस्ता दर रहन-ए-सुख़न था…

लूँ वाम बख़्त-ए-ख़ुफ़्ता से यक-ख़्वाब-ए-खुश वले | मिर्ज़ा ग़ालिब

लूँ वाम बख़्त-ए-ख़ुफ़्ता से यक-ख़्वाब-ए-खुश वले | मिर्ज़ा ग़ालिब   लूँ वाम बख़्त-ए-ख़ुफ़्ता से यक-ख़्वाब-ए-खुश वले ‘ग़ालिब’ ये ख़ौफ़ है कि कहाँ से अदा करूँ   ख़ुश वहशते कि अर्ज़-ए-जुनून-ए-फ़ना…

ज़माना सख़्त कम-आज़ार है ब-जान-ए-असद | मिर्ज़ा ग़ालिब

ज़माना सख़्त कम-आज़ार है ब-जान-ए-असद | मिर्ज़ा ग़ालिब ज़माना सख़्त कम-आज़ार है ब-जान-ए-असद वगर्ना हम तो तवक़्क़ो ज़ियादा रखते हैं   तन-ए-ब-बंद-ए-हवस दर नदादा रखते हैं दिल-ए-ज़-कार-ए-जहाँ ऊफ़्तादा रखते है…

फ़ारिग़ मुझे न जान कि मानिंद-ए-सुब्ह-ओ-मेहर | मिर्ज़ा ग़ालिब

फ़ारिग़ मुझे न जान कि मानिंद-ए-सुब्ह-ओ-मेहर | मिर्ज़ा ग़ालिब   फ़ारिग़ मुझे न जान कि मानिंद-ए-सुब्ह-ओ-मेहर है दाग़-ए-इश्क़ ज़ीनत-ए-जेब-ए-कफ़न हुनूज़   है नाज़-ए-मुफ़्लिसाँ ज़र-ए-अज़-दस्त-रफ़्ता पर हूँ गुल-फ़रोश-ए-शोख़ी-ए-दाग़-ए-कोहन हुनूज़   मै-ख़ाना-ए-जिगर…

अपने दीवार-ओ-दर से पूछते हैं | राहत इंदौरी

अपने दीवार-ओ-दर से पूछते हैं | राहत इंदौरी अपने दीवार-ओ-दर से पूछते हैं घर के हालात घर से पूछते हैं क्यूँ अकेले हैं क़ाफ़िले वाले एक इक हम-सफ़र से पूछते…

जो ये हर-सू फ़लक मंज़र खड़े हैं | राहत इन्दोरी

जो ये हर-सू फ़लक मंज़र खड़े हैं | राहत इन्दोरी जो ये हर-सू फ़लक मंज़र खड़े हैं न जाने किस के पैरों पर खड़े हैं तुला है धूप बरसाने पे…

सियाही जैसे गिर जाए दम-ए-तहरीर काग़ज़ पर | मिर्ज़ा ग़ालिब

सियाही जैसे गिर जाए दम-ए-तहरीर काग़ज़ पर | मिर्ज़ा ग़ालिब जुनूँ तोहमत-कश-ए-तस्कीं न हो गर शादमानी की नमक-पाश-ए-ख़राश-ए-दिल है लज़्ज़त ज़िंदगानी की कशाकश-हा-ए-हस्ती से करे क्या सई-ए-आज़ादी हुइ ज़ंजीर-ए-मौज-ए-आब को…

है वस्ल हिज्र आलम-ए-तमकीन-ओ-ज़ब्त में | मिर्ज़ा ग़ालिब

है वस्ल हिज्र आलम-ए-तमकीन-ओ-ज़ब्त में | मिर्ज़ा ग़ालिब है वस्ल हिज्र आलम-ए-तमकीन-ओ-ज़ब्त में माशूक़-ए-शोख़ ओ आशिक़-ए-दीवाना चाहिए उस लब से मिल ही जाएगा बोसा कभी तो हाँ शौक़-ए-फ़ुज़ूल ओ जुरअत-ए-रिंदाना…